गेव अवारी
नागपुर से संसद सदस्य ( ६ वी लोकसभा १९७७ –१९८० )
२६ वर्ष की उम्र में बने सांसद
१९८३ में एस.टी.महामंडल के अध्यक्ष
पिता के आदर्शों पर चलकर गेव आवारी ने की समाजसेवा की राजनीति
भारत की 19वीं व 20वीं सदी ऐसे अनेक राष्ट्रभक्त और राष्ट्रसेवा, समाजसेवा की भावना से ओतप्रोत नेताओं की साक्षी रही है, जो अपने अविस्मरणीय कार्यों के चलते एक मिसाल बन गए और आज उनका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। ऐसे ही एक क्रांतिकारी नेता थे स्व. मंचरशा आवारी, जिन्होंने उस दौर में देशसेवा व समाजसेवा के कार्य किए जब भारत अपनी स्वतंत्रता का संघर्ष कर रहा था और अनेकशहीदों के बलिदान के बाद सन् 1947 में देश ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुआ था। ऐसे महान क्रांतिकारी नेता मंचरशा और दलेर बानो के घर में उस वक्त किलकारियां गूंज उठीं, जब 31 जुलाई 1950 को एक पुत्र काजन्महुआ। एक ओर देश की आजादी का जश्न और दूसरी ओर बेटे के जन्मदिन की खुशी दूध-शर्करा की भांति साबित हुई। बालक का नाम गेव आवारी रखा गया। जी हां, वही गेव आवारी जो आगे चलकर नागपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद बने। अपने जीवन में प्रायः ऐसे विरले लोग ही होते हैं, जो संघर्षों और कठिनाइयों का सामना करके सफलता के शिखर को छू पाते हैं। वहीं, कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिन्हें जन्मजात और विरासत में सारी सुख-सुविधाएंएवं सफलता के सारे दरवाजेखुले मिलतेहैं। नागपुर शहर की विभिन्न हस्तियों में शुमार श्री गेव मंचरशा आवारी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर सांसद बनने का उनका सफर काफी उतार-चढ़ाव और संघर्षों से भरा रहा। 3 जुलाई,1950 को नागपुर शहर में जन्मे श्री आवारी अपनीमाता दलेर बानो और पिताश्री मंचरशा के संस्कारों और आदर्शों के साये में पले व बढ़े। गेव आवारी की प्राथमिक शिक्षा जे.एम.टाटा पारसी स्कूल में व हाईस्कूल की शिक्षा एसएफएस तथा बिशप काॅटन स्कूल से पूरी की। तत्पश्चात महाविद्यालीन पढ़ाई माॅरिस काॅलेज (बीए)एवं नागपुर विश्वविद्यालय से पूरी की। कुछ व्यक्तिगत परेशानियों और अपरिहार्य कारणवश उनकी एमए की पढ़ाई अधूरी रह गई। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन एलएलएम पार्ट वन पूरा करने के बाद आगे की पढ़ाई भी वे पूरी नहीं कर पाए।
पिता जनरल मंचरश रुस्तोमजी अवारी
स्वर्गीय जनरल मंचरशा रुस्तमजी अवारी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में प्रथम पंक्ति के प्रसिद्ध व्यक्ति थे। 29 मई, 1898 को वर्तमान गुजरात राज्य के सूरत जिले में गांव गांडेवी में एक पारसी परिवार में जन्मे। श्री मणचरशा अवारी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा को वल्हेड शहर में लिया। वह बॉम्बे में स्थानांतरित हो गए जहां उन्होंने अपना मैट्रिक किया और बॉम्बे यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपनी डिग्री हासिल की। वह एक मेरिट छात्र थे और मेरिट के क्रम में अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की । छात्रवृत्ति पर उन्हें यू.एस.ए. में डेट्रायट भेजा गया था। उनकी वापसी पर वह ज़ांजीबार में रुक गए, जो अब केन्या का एक हिस्सा है। उनकी वापसी के बाद उन्हें १९२० में एम्प्रेस मिल्स में अपरेंटिस मैकेनिकल इंजीनियर के रूप में काम करने के लिए टाटा समूह द्वारा चुना गया था। जल्द ही वह महात्मा गांधी के आंदोलन के संपर्क में आये । १९२० में महात्मा गांधी के साथ अचानक उनकी मुलाकात हुई । महात्मा गांधी उनके चाचा खान बहादुर अवारी, जो एक अमीर व्यवसायी थे को जानते थे, जिनका व्यावसाय बॉम्बे, शिमला, कराची और उत्तरी भारत में फैल हुआ था । अंततः वह महात्मा गांधी के एक उत्साही अनुयायी बन गए और जल्द ही गांधीजी के आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी के कारण नौकरी से इस्तीफा दे दिया। १९२३ में फेमस जंगल सत्याग्रह में उन्होंने सी.पी. बरार राज्य में नेतृत्व किया और पहली बार जेल गए । १९२६ में उन्होंने ब्रिटिशों के अत्याचारी कानून के खिलाफ प्रसिद्ध हथियार सत्याग्रह का नेतृत्व किया कि कोई भी भारतीय हथियार नहीं लेगा। १९२६ में उन्होंने ब्रिटिशों के अत्याचारी कानून के खिलाफ प्रसिद्ध हथियार सत्याग्रह का नेतृत्व किया कि कोई भी भारतीय हथियार नहीं लेगा। । महात्मा गांधी ने अपने हथियारों के आंदोलन पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यह प्रिंसिपल्स ऑफ़ नॉन -वोइलेंस के सिद्धांतों के खिलाफ जाएगा। युवा मंचशा अवारी ने व्यक्तिगत रूप से महात्मा गांधी से मुलाकात की और उन्हें आश्वस्त किया कि उनका आंदोलन केवल ब्रिटिशों की अवहेलना है और उनके कोई भी अनुयायी ब्रिटिशों के खिलाफ उन हथियारों का उपयोग नहीं करेंगे। महात्मजी को यकीन हो गया और उसने आंदोलन को अपना आशीर्वाद दिया। इस आंदोलन ने देश के जनता को उकसाया। अपने एक सार्वजनिक भाषणों में, महात्मा गांधी ने मणचरशा अवारी की प्रशंसा करते हुए और उनके आंदोलन को उनके जनरल मंचरशा अवारी कहा। तब से उन्हें जनरल अवारी के नाम से जाना जाता था।वह विशेष रूप से पंडित जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषंद्र बोस के साथ स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध में आए। मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद और डॉ। राजेंद्र प्रसाद। सभी में उन्होंने ब्रिटिश जेलों में १४ (चौदह) वर्ष बिताए और कई उपवास किए, वे कंस्टीटूशन असेंबली के मेंबर रहे जिसने १९४७ से १९५० तक भारतीय संविधान लिखा था। वह उत्साही समाजवादी थे। राजनीतिक अंतर के कारण उन्होंने १९५१ में कांग्रेस को छोड़ दिया और आचार्य क्रिपलानी, आचार्य नरेंद्र देव, जयपराश नारायण के साथ किसान माजूर प्रजा पार्टी में शामिल हुए, जो बाद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विलय हो गया। १९५२ में, पहले आम चुनाव में, उन्होंने केएमपीपी पर नागपुर में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव जीते और तत्कालीन मध्य प्रदेश विधानसभा में प्रमुख विपक्षी नेता थे। १९५२ से १९५७ तक सांसद और एक विपक्षी नेता थे। वे अंग्रेजी, हिंदी और मराठी में एक उग्र लेखक थे वे फारसी, उर्दू, अरबी और तेलगु भाषाओं को भी जानते थे । उन्होंने १९२६ में २ किताबें लिखीं "शरण से किरणें" और १९२८ में "मेरे भाई को पत्र"
१९५६ में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने मध्य प्रदेश के अपने मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक प्रस्ताव दिया था, अगर वे अपने समूह के एम एल ए व एस एम. पी.के साथ एते है तो परन्तु यह उनके सिद्धांत विरुद्धा था । १ जुलाई, १९७४ को ७६ वर्ष की आयु में गले के कैंसर केमें उनकी मृत्यु हो गई।उनके ४ बच्चे थे। उनकी बड़ी बेटी जेर अवारी अंग्रेजी के पूर्व-प्रोफेसर ,उनके बड़े बेटे होशंग अवारी जो जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी में थे, १९६९ में एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। वह दूसरी बेटी श्रीमती ज़रीन रेंडेलिया उनका सबसे छोटा बेटा श्री गेव अवारी,
नागपुर शहर की विभिन्न हस्तियों में शुमार श्री गेव मंचरशा आवारी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर सांसद बनने का उनका सफर काफी उतार-चढ़ाव और संघर्षों से भरा रहा। 3 जुलाई,1950 को नागपुर शहर में जन्मे श्री आवारी अपनीमाता दलेर बानो और पिताश्री मंचरशा के संस्कारों और आदर्शों के साये में पले व बढ़े। गेव आवारी की प्राथमिक शिक्षा जे.एम.टाटा पारसी स्कूल में व हाईस्कूल की शिक्षा एसएफएस तथा बिशप काॅटन स्कूल से पूरी की। तत्पश्चात महाविद्यालीन पढ़ाई माॅरिस काॅलेज (बीए)एवं नागपुर विश्वविद्यालय से पूरी की। कुछ व्यक्तिगत परेशानियों और अपरिहार्य कारणवश उनकी एमए की पढ़ाई अधूरी रह गई। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन एलएलएम पार्ट वन पूरा करने के बाद आगे की पढ़ाई भी वे पूरी नहीं कर पाए।
कम उम्र में असीम दुख का किया सामना
कल्पना कीजिए कि महज 14 वर्ष, 18 वर्ष और 22 वर्ष की उम्रमें परिवार में तीन मौतों का दुख किसी बच्चे को सहना पड़े तो उसके मन पर क्या गुजरती होगी। श्री गेव आवारी बताते हैं कि दुर्भाग्य से मैं जब 14 साल का था तब माताजी का निधन हो गया। इस दुख से उबरे भी नहीं थे कि 18 वर्ष की उम्र हुई तो बड़े भाई की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। ईश्वर न जाने कैसी परीक्षा ले रहा था कि जब युवावस्था अर्थात् 22वें वर्ष में कदम रखा तो अचानक पिताजी का स्वर्गवास हो गया। 8 सालों में एक के बाद एक माता, भाई और पिताजी का साथ छूट जाने का गम आज भी दिल मेंकसक की तरह चुभता है, ऐसा श्री आवारी मार्मिक शब्दों में व्यक्त करते हैं।
नेतृत्व क्षमता का आगाज
श्री गेव आवारी के पिताश्री मंचरशा आवारी कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय थे, अतः घरमें राजनीतिक वातावरण था। गेव आवारी के बाल मन परराजनीति से अधिक समाजसेवा की भावना थी। जब वे किसी सार्वजनिक कार्यक्रमों अथवा कोई सभा में किसी नेता को भाषण देते हुए देखते तो उन्हें भी लगता किवे ऐसे ही वक्ता बनें। श्री आवारी एक घटना सुनाते हुए कहते हैं कि सन् 1920 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। पिताजी के कारण मेरा रुझान भी राजनीति में हुआ। जब वे बिशप काॅटन स्कूल में थे तब पहली बार डिबेट्स में भाग लिया। इस डिबेट से उनका मनोबल बढ़ा और फिर जब वे माॅरिस काॅलेज में थे तब स्वेच्छा से डिबेट्स में भाग लेकर अंग्रेजी में स्पीच दी। इस डिबेट्स की खबर पहली बार नागपुर टाइम्स में छपी तो अहसास हुआ कि उनमें वकृत्वकला है और इसे विकसित किया जा सकता है। श्री आवारी बताते हैं कि, उन्होंने युनिवर्सिटी में 23 डिबेट्स में भाग लिया। इनमें से 21 डिबेट्स में फस्र्ट प्राइज मिले। राजनीतिक गुण उन्हें विरात में ही मिले थे। वे महाराष्ट्र विद्यार्थी कांग्रेस में ज्वाॅइन हुए और 1973 में विद्यार्थी आंदोलन में शामिल हुए। इंदिराजी ने एक कमेटी बनाई। उस कमेटी में ये सदस्य बने। इसी दरम्यान 11 जून, 1973 को विज्ञान भवन का उद्घाटन हुआ, तब श्री आवारी की मुलाकात श्रीमती इंदिरा गांधी से हुई। वे बताते हैं कि 11 जनवरी को विनोबा भावे आचार्यकुल काॅन्क्लेव में उन्होंने भाग लिया। उस वक्त इंदिराजी ने सभी विद्यार्थी नेताओं को बुलाया। श्री आवारी इंदिराजी से मिले और उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए। इंदिराजी ने घर पर आने का निमंत्रण दिया, लेकिन वे किसी अपरिहार्य कारणवश जा न सके। श्री आवारी अपनी अतीत की स्मृतियों को स्मरण कर बताते हैं कि, पिताजी के निधन के बाद 4 मार्च, 1972को सिरसपेठ में कार्यालय का उद्घाटन हुआ, तब उन्होंने करीब आधा घंटे तक धाराप्रवाह स्पीच दी, जिसे सुनकर वहां उपस्थित लोग काफी प्रभावित हुए। उसके बाद वे सोशल वर्क में उतर गए और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1975 में महानगर पालिका का चुनाव लड़ा और उस चुनाव में 28 हजार वोटों से जीत दर्ज की। दरअसल, उस वक्त उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी, लेकिन जनता ने उनका साथ दिया। श्री आवारी बताते हैं कि उस वक्त 75 पार्षदों का हाउस था। मनपा के इस चुनाव में कांग्रेस के 17, जाम्बुवंतराव धोटे गुट के 16, जनसंघ के 11 व अन्य पार्षद विजयी हुए थे।
26 वर्ष की उम्र में बने सांसद
मनपा चुनाव के 28 माह बाद लोकसभ भंग हो गई। इस दौरान इन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी का पद मिला, वहीं 23 मार्च, 1980 में नागपुर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे व उन्हें कांग्रेस का घोषणापत्र तैयार करने को कहा गया। कांग्रेस के शहराध्यक्ष बनने के पूर्व 4 मार्च को श्री आवारी ने राज्यसभा सदस्य बनने की कोशिश की, लेकिन उम्र की बाधा आड़े आ गई। इसके बाद विधानसभा के चुनाव घोषित हो गए और इनका नाम पश्चिम नागपुर से बतौर कांग्रेस प्रत्याशी घोषित किया गया। वे बताते हैं कि उस वक्त डाॅ. आहूजा, महादेवराव भोयर जैसे दिग्गज मैदान में थे। आखिर 11 हजार वोटों से उन्होंने जीत दर्ज की और विधायक बने। 5 सालों तकवे विधायक रहे। उस वक्त मुख्यमंत्री अंतुले थे। तत्पश्चात 1983 में बाबासाहब भोसले सीएम बने। तब मुख्यमंत्री ने एसटीमहामंडल का इन्हें अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस बीच अचानक इंदिरा जी की हत्या हो गई, जिससे पार्टी को काफी नुकसान हुआ। सन् 1985 में श्री गेव आवारी ने पुनः विधानसभा चुनाव लड़ा और भाजपा के दिग्गज नेता श्री नितिन गडकरी को 11 हजार वोटों से पराजित किया। इसके बाद उनकी समाजसेवा की राजनीति शुरू हुई। वर्ष 2018 में 55 आइटीआइ के छात्रों को प्रशासकीय लापरवाही से अनुउत्तीर्ण कर दिया था। उन छात्रों की पीड़ा से श्री आवारी व्यथित हो गए और उन्हें न्याय दिलाया। ये सभी छात्र अंततः उत्तीर्ण हो गए।
President of N.M.U. College Students’ Union (Nagpur University), 1969;
Member, representing Maharashtra) Committee of Educationists and Student Leaders formed by the Ministry of Education and Social Welfare, Government of India,
1973-76; Councillor, Nagpur Municipal Corporation, 1975;
Director, Chitnispura Friends Co-operative Bank, Nagpur, 1977;
Member, Committee of Directors, Hislop College, Nagpur—an agency for implementing Social Welfare Project of ILO in collaboration with Family Planning Foundation of India.
Founder Vice-President of Nagpur University Students' Welfare Association, 1970-72; associated With social welfare activities of Y.M.C.A.