5 वर्ष की उम्र से भजन गायकी:7 की उम्र से स्टेज शो:13 वर्ष की उम्र में रामायण विशारद:आवाज संस्कार व सत्संग चैनलों पर भजन गायकी
कहते हैं बिना तपे सोने की कीमत नहीं होती और न ही उससे आकर्षक आभूषण ही तैयार किये जा सकते हैं. ऐसा ही हमारे व्यक्तित्व का भी है. जितना जीवन में संघर्ष उतना निखार. जो जीवन का अर्थ समझ लेते हैं वे तो इसी सिद्धांत पर आगे बढ़ते चले जाते हैं खुद को तपाते हुए. और जब उनका व्यक्तित्व निखर कर सामने आता है तो वही समाज उन्हें सिरआंखों पर बिठाने लगता जो संघर्ष के समय में न जाने कहाँ होता है. राह में तो रोड़े आते ही रहते हैं लेकिन अगर लक्ष्य को पाने की ललक, जिद हो और उसके लिए परिश्रम करने का बगावती तेवर तो, फिर ऐसा बहुआयामी व्यक्तित्व गढ़ता है जो समाज के लिए प्रेरणादायी बन जाता है. समाज में ऐसे अनेक व्यक्तित्व हैं जो पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक विषम परिस्थतियों को मात करते हुए अपना मुकाम हासिल करने में सफल हुए. ऐसा ही एक व्यक्तित्व है नागपुर शहर के डा. गोपाल अग्रवाल का. उन्होंने १३ जुलाई १९६४ को कपड़ा व्यवसायी प्रल्हादराय व बसंतीदेवी के छोटे बेटे के रूप में जन्म लिया था. आज आप उनकी मधुर व भक्तिमय आवाज संस्कार व सत्संग चैनलों पर सुनते हैं. उनकी भजन गायकी के देश-दुनिया में लाखों दिवाने हैं. यूट्यूब पर डा. गोपाल अग्रवाल सर्च करते ही बड़ी संख्या में उनके भजन आपको नजर आते हैं. देशभर के लगभग सभी शहरों में उन्होंने स्टेज शो किया है और सतत उनकी भक्तिमय संगीत यात्रा का यह सिलसिला जारी है.
जब हथेली हो गई लहूलुहान यह तो डा. गोपाल अग्रवाल के व्यक्तित्व का एक ही आयाम है. उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जिनके दादाजी सेठ लादूरामजी अग्रवाल स्वतंत्रता पूर्व १९२२ में राजस्थान के झुंझुनू जिले के छोटे से गांव कांकरिया से रोजीरोटी की तलाश में आये थे. पहले उन्होंने साइकिल पर घूम-घूम कर कपड़े बेचे और फिर संतरा मार्केट मारवाड़ी चाल में बेगराज लादूराम नाम से फर्म शुरू की. कपड़े के व्यवसाय में फिर आने वाली पीढियां भी जुड़ती चली गईं. डा. गोपाल अग्रवाल के पिता प्रल्हाद राय भी पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में लिप्त हो गये. घर वातावरण काफी धार्मिक था. डा. अग्रवाल बताते हैं कि परिवार में १० वीं तक की पढ़ाई के बाद दुकान में बिठा दिया जाता था. संयुक्त परिवार था. तीन भाइयों में वे छोटे है . बचपन से ही व्यवसाय में रूचि नहीं थी. घर में चल रही रूढिवादिता व उच्च शिक्षा के खिलाफ माहौल उन्हें पसंद नहीं था. जब वे ५ वर्ष के थे तभी से भजन गायकी में रुचि थी. दरअसल घर के सामने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रमेशचंद्र पीपलवा रहते थे. उनके यहां रोज रात को भजन होता था. वे बच्चों को संतरागोली (टॉफी) बांटा करते थे. जिसके लालच में वे भी वहां जाते थे और ढोल बजाते थे. जब वे ७ वर्ष के थे तब गीता मंदिर में पीपलवाजी का भजन कार्यक्रम था लेकिन उनकी तबियत खराब हो गई. वे इसकी सूचना देने पहुंचे तो गीता मंदिर के महाराज स्वामी सदानंदजी ने उन्हें ही भजन गाने को कहा. हाफपैंट व हाफशर्ट पहन कर ढोलक लेकर बैठ गए. एक छोटे बच्चे को भजन प्रस्तुत करते देख भारी भीड़ जमा हो गई. यह बच्चा ईश भजन में इतना तल्लीन हो गया कि उसके पता ही नहीं चला कि ढोल पर थाप देते-देते उसकी हथेलियां लहुलूहान हो गई हैं. देखने वाले दंग रह गए. भजन खत्म हुआ तो स्वामीजी ने गोद में उठा लिया. यह उनकी जिंदगी का पहला स्टेज शो था. डा. गोपाल उन पलों को याद करते भावुक हो उठते हैं. वे अखिल भारतीय साधु समाज के पूर्व परमाध्यक्ष, देश-विदेशस्थ श्री गीता मंदिरों के तृतीय गादीपति, अटल पीठाधीश्वर ब्रम्हलीन आचार्य महामण्डलेश्वर श्री श्री १००८ स्वामी श्री मंगलानंदजी महाराज को अपना गुरुदेव मानते हैं. १९६९ से वे भजन गायकी कर रहे हैं.
कला-वाणिज्य-विज्ञान में स्नातकोत्तर वे बताते हैं कि उनकी दादी वृंदावन से थीं, माता -पिता भी धार्मिक प्रवत्ति के रहे. घर में आध्यात्मिक वातावरण तो था लेकिन उनके द्वारा भजन गाना माता -पिता को छोड़कर शेष कोई भी सदस्य पसंद नहीं करता था. सभी चाहते थे वे भी दूसरे पुरुष सदस्यों की तरह अपने कपड़े के व्यवसाय में ध्यान दें. आज उनके पैतृक व्यवसाय का स्वरूप बदल गया . लेकिन उन्होंने अपना अलग रास्ता चुन लिया था. उनकी नर्सरी, प्रायमरी, जूनियर कालेज व स्नातकोत्तर की शिक्षा भी नागपुर में ही हुई. चूंकि १० वीं कक्षा के बाद उनके परिवार ने आगे की पढ़ाई से इंकार कर दिया था इसलिए डा. गोपाल ने अपने भजन कार्यक्रमों से मिलने वाली दक्षिणा रूपी राशि से आगे की पढ़ाई करनी शुरू की. अमूमन देखने में आता है कि कोई भी किसी एक विषय में शिक्षा हासिल करता है और उसी को आधार बनाते हुए अपना भविष्य सुनिश्चित करता है लेकिन डा. गोपाल ने कला, वाणिज्य व विज्ञान निकाय में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की. इसके अलावा उन्होंने स्टेट कौंसिल आफ आयुर्वेदिक एन्ड यूनानी मेडिसिन्स द्वारा २००१ में ‘आयुर्वेद रत्न’ की पदवी ली.
गलत परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत डा. गोपाल बताते हैं कि भले ही परिवार का कपड़े का व्यवसाय था लेकिन उस जमाने में आर्थिक हालात उतने अच्छे भी नहीं थे. चूरन खाने को पैसे मिलते तो उसे गुल्लक में डाल दिया करते थे. गलत परंपराएं, रुढिवादिता उन्हें रास नहीं आती थी और उन्हें तोड़ने की हिम्मत भी उनमें थी. बचपन से लेकर किशोरावस्था पढ़ाई व भजनगायकी में बीता और जब जवानी पर कदम रखा तो १९८८ में विवाह हो गया. इसके एक वर्ष पश्चात ही उन्होंने १९८९ में नवभारत अखबार में नौकरी ज्वाइन की और साथ ही एल.आई.सी. एजेंट भी बन गए. महज ७०० रुपये का वेतन मिला करता था लेकिन लेखनी में रुचि होने और मज़बूरी के चलते वे इतने कम वेतन पर भी १६ -१६ घंटे परिश्रम किया करते थे. उन्होंने नवभारत में ‘कलासागर’ नाम से कालम की शुरुआत की. अनेक फिल्मी हस्तियों के साक्षात्कार लिए. एक वर्ष बाद ही पत्नी व ९ माह के बेटे के साथ घर छोड़ दिया और बजाजनगर में कस्तूरबा वाचनालय के करीब किराये पर रहने लगे. मकान का किराया ही ७०० रुपये था नवभारत में कार्य करते हुए एलआईसी व भजन गायकी से अतिरिक्त आय के लिए जीतोड मेहनत करने लगे. उन्हें हारना बिल्कुल पसंद नहीं था. धीरे-धीरे मेहनत का फल भी मिलने लगा. लेकिन जीवन में समय हर वक्त तो अच्छा नहीं होता. नवभारत में अपने किसी सहकर्मी की ईर्ष्या व साजिश का वे शिकार हो गए और उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी. मन आहत हुआ क्योंकि वे गलत नहीं थे. ठान लिया कि इसी नवभारत के सामने अपना खुद का कार्यालय खोलूंगा. उसके बाद वह कर दिखाया कि उनके विरोधी भी उनके कार्यालय में आकर बैठने लगे व उनकी सराहना करने लगे.
फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. वैसे भी वे आगे बढ़ते जाने पर ही यकीन रखते हैं. आज डा. गोपाल अग्रवाल LIC में चीफ लाइफ इंश्योरेंस एडवाइजर व चेयरमेन्स क्लब के सदस्य’ हैं. इसके अलावा एलआईसी म्युचुअल फंड के ‘की-बिजनेस पार्टनर’ हैं. युनाइटेड इंडिया इंश्योरेन्स कंपनी लिमिटेड, अपोलो म्युनिख हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड में बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं. उन्होंने अनेकों को रोजगार दिया हुआ है. वे भारतीय जूनियर चेंबर के प्रशिक्षक हैं. वे नागपुर ओरिएंड जूनियर चेंबर के संस्थापक अध्यक्ष है. अध्यात्म तो उनकी आत्मा में बसता है, अपने व्यवसाय के साथ उनकी भजन गायकी के कार्यक्रम सतत जारी रहे. उन्होंने २०१५ में श्री शाकम्भरी परिवार नागपुर की स्थापना की. इसके अलावा वे श्री गीता मंदिर, श्री पोद्दारेश्वर राम मंदिर, श्रीश्याम मित्र मंडल, श्री अग्रसेन मंडल, सनराइज पीस मिशन नागपुर, व्यक्तित्व विकास केन्द्र बंगलुरु, भारतीय जूनियर चेंबर मुंबई से सम्बद्ध हैं. वे ध्यान साधना शिविरों का संचालन करते हुए लोगों को मार्गदर्शन करते हैं.
...फिर बदली जीवन कि दिशा डा. गोपाल ने बताया कि पत्रकारिता के दौरान वर्ष १९९५ के शीतसत्र अधिवेशन में उन्होंने कुछ अय्याश नेताओं के लिए अनाथ बच्चियों को सप्लाई होते अपनी आंखों से देखा. वे पूरे सिस्टम के खिलाफ तो लड़ना चाहते थे लेकिन यह अकेले के लिए संभव नहीं था. तब उन्होंने अपनी ओर से इन बच्चियों के लिए कुछ करने की सोची. वर्ष 2002 तक अपने भजन कार्यक्रमों की कमाई से २१ अनाथ बच्चियों का कन्यादान किया. आगामी काल में जेसीआई नागपुर ओरिएंट के माध्यम से ‘प्रोजेक्ट दृष्टि’ की शुरुआत की. जिसके वे फाउंडर प्रेसीडेंट हैं. उन्होंने गरीबों को नि:शुल्क आंख जांच व चष्मा वितरण के लिए लोगों के घरों से पुराने चष्मों को एकत्र करने का अभियान शुरू किया. कुछ मंदिरों में कलेक्शन बाक्स लगाए. भारी प्रतिसाद मिला. आप्टिशियन्स व आई स्पेशलिस्ट की दो टीमें बनाई. जिले के दुर्गम ग्रामीण इलाकों में शिविर लगाकर आंख जांच व चष्मा वितरण शुरू किया जिसका प्रसारण जीन्यूज चैनल ने भी किया. पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ‘तुलसी लगाओ पर्यावरण बचाओ’ अभियान की शुरुआत की. उनके सहयोगी ने सावनेर में अपने खेत में तुलसी लगाई. स्कूलों में जाकर एक बच्चे को दो पौधे वितरित करते थे ताकि एक वह अपने घर में लगाए और दूसरा पड़ोसी के घर में. इससे पड़ोसियों से भी संबंध मधुर बनाने का उद्देश्य छिपा था. डा. अग्रवाल राजस्थान के जिला सीकर के सकराय में १००० करोड़ रुपये की लागत से बन रही शाकम्भरी माता मंदिर परिसर योजना के २५ सदस्यों में से एक हैं. इस मंदिर में शाकम्भरी माता की मूर्ति ५५०० वर्ष पुरानी है जिसे युधिष्ठिर द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था. वे बचपन में आचार्य विनोबा भावे की विचारधारा से प्रेरित थे. उन्होंने गो विज्ञान अनुसंधान केन्द्र से ‘पंचगव्य’ से उपचार विधि सीखी. योगगुरु रामदेव बाबा द्वारा उनका सत्कार हो चुका है.
बनाये कई रिकार्डडा. अग्रवाल महज १३ वर्ष की उम्र में रामायण विशारद बनने वाले भारत के पहले व्यक्ति हैं. वर्ष १९७७ में वे विशारद हुए. १९८० में नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर में लगातार ४८ घंटे भक्तिगीतों की प्रस्तुति का उनका रिकार्ड है जिसके लिए तात्कालीन नेपाल नरेश श्री विरेन्द्रवीर विक्रम शाह एवं महारानी ऐश्वर्या द्वारा सम्मानित किया गया था. इसी वर्ष एक म्युजिक कांसेप्ट में पुणे सेवा सदन सोसाइयटी द्वारा उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला और तब से परिवार ने उनका विरोध करना छोड़ दिया. उन्होंने जीवन विद्या ट्रस्ट मुंबई द्वारा वर्ष १९९५ में जयपुर में जीवन बीमा विपणन व प्रबंध प्रवीणता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम पूर्ण किया. वर्ष २००१ में स्टेट कौंसिल आफ आयुर्वेदिक एन्ड यूनानी मेडिसिन्स द्वारा आयुर्वेद रत्न हुए. इंटरनेशनल सू-जोक थैरेपी एसोसिएशन मास्को द्वारा वर्ष २००४ में एक्युप्रेशर थैरेपिस्ट की पदवी प्राप्त की. उनके आडियो कैसेट्स श्री राणी सती भजनांजलि और श्री सालासर हनुमान भजनांजलि हिंदी व राजस्थानी में लांच हुए . आडियो सीडी प्रार्थना, साधना, आराधना, श्री शाकम्भरी मंगल पाठ, वीडियो सीडी संस्कार के भजन आज भी लाखों लोग सुन रहे हैं. अनेक अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में उन्होंने भाग लिया. गोस्वामी तुलसीदासजी के जीवनचरित्र पर आधारित हिंदी नाटक ‘बंदऊं तुलसी के चरण’ में अभिनय, संगीत निर्देशन एवं पार्श्वगायन तथा द्विपात्रीय हिंदी नाटक ‘तुलसी या संसार में’ संगीत निर्देशन व पार्श्वगायन किया. हिंदी साहित्य की सेवा हेतु विदर्भ राष्ट्रभाषआ प्रचार समिति वर्धा ने १९८६ में उन्हें ‘राष्ट्रभाषा रत्न’, भक्तिसंगीत के लिए सुरसंगम जयपुर द्वारा १९८७ में ‘सुरश्री’, भारतीयता के प्रति विशिष्ट उल्लेख्य समपर्ण हेतु सनराइज पीस मिशन द्वारा २००५ में ‘सनराइज गौरव’ से सम्मानित हुए. इसके अलावा अब तक उन्हें कई नामी व अखिल भारतीय स्तर की संस्थाओं द्वारा विविध सम्मानों से नवाजा जा चुका है. उन्होंने देवी शाकम्भरी की महिमा पर आधारित हिंदी धार्मिक ग्रंथ ‘श्री शाकम्भरी मंगल पाठ’ का लेखन व संपादन किया. कंचन कलश काव्य संग्रह का संपादन किया. संस्कार व सत्संग चैनल पर ११ दिसंबर २०१४ से रोजाना उनके भक्तिमय गीतों का प्रसारण हो रहा है.
भक्ति संगीत ही आदि-मध्य व अंत प्रेरणादायी हो गया है. वे कहते हैं कि भक्ति संगीत के क्षेत्र में और आगे जाना चाहता हूं. इससे आत्मिक शांति मिलती है. यही मेरा आदि-मध्य व अंत होगा. युवाओं से कहते हैं कि, वे भारतीय सभ्यता व संस्कृति से जुड़े रहे, पूरी दुनिया में हमारी संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है. आज वे अपने व्यवसाय, भजन साधना, लेखनी के साथ ही रोजाना सुबह 7 से 9 बजे तक कलमना मार्केट के समीप स्थित अपने निवास पर गरीब, मजदूर रोगियों की नि:शुल्क चिकित्सा करते हैं. यह सेवा 2001 से सतत जारी है. वे स्व. पं. रमाकांतजी शर्मा मुंबई, पं. राधाकृष्णजी शर्मा राजस्थान, स्व. रमेशचंद्रजी पीपलवा, श्री रामजी शुक्ल, श्री श्रीनिवासजी मुखर्जी, ‘सुरमणि’ पं. प्रभाकरजी धाकड़े एवं श्री सुनीलजी आगरकर नागपुर को संगीत के क्षेत्र में अपना मानस गुरू मानते हैं जिनसे उन्हें अपने जीवन को गढ़ने की प्रेरणा मिलती रही.
>आयुर्वेद, पंचगव्य और एक्यूप्रेशर समन्वय चिकित्सा पद्धति हेतु विश्वप्रसिद्ध योग ऋषि स्वामी रामदेवजी द्वारा सम्मानित
>सन् १९८० में काठमांडू (नेपाल) स्थित पशुपतिनाथ के मंदिर में सतत ४८ घंटे भक्तिगीतों की सफल प्रस्तुति, तद्हेतु तत्कालिन नेपालनरेश श्री वीरेंद्रवीर विक्रम शाह एवं महारानी ऐश्वर्या द्वारा सम्मानित
>सन् २००५ में सनराइज पीस मिशन द्वारा "सनराइज गौरव" विभूषणों से सम्मानित
> सन् १९८७ में सुरसंगम, जयपुर द्वारा "सुरश्री" से सम्मानित